इस दुनिया से मैं रूठ सा गया हूँ,
अंदर ही अंदर टूट सा गया हूँ,
सब कुछ अब व्यर्थ सा लगने लगा है,
जब से उन बच्चों का चलचित्र मेरे मन में चलने लगा है।
उन मासूम बच्चों की क्या गलती थी,
जिनके नन्हें पाँव तपती धूप में चलने को थे मजबूर,
अधूरे सपनों को लेकर चल पड़े थे,
उन्हें ना मौत का डर था,
क्योंकि उनके जहन में खटकता ये वीरान शहर था,
तपती सड़कें, मीलों का दर्दनाक सफर और नन्हें पाँव,
ना पैरों में चप्पल थे,ना सिर पर छाँव,
उन्हें सिर्फ याद आता था अपना वो गाँव।
पास में बस सूखी रोटियाँ थीं,
चलते-चलते वो गये थे टूट,
बचपन को अपने गए थे भूल,
बेबसी में भूख से लड़ते हुए चल पड़े थे बेक़सूर,
बस एक ही सपना था मन में,
घर पहुँचना है हमें।
:- शिवम् मिश्रा
Read Also Unforgettable Love Poem❤️❤️❤️
Must Read हाँ, मैंने प्रकृति को ढलते देखा है कविता
Read Also बेक़सूर कविता
Read Also अन्धकार कविता
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Please do not enter any spam link in the comment box.