चुनावी बाॅण्ड
चुनावी बाॅण्ड अपनी शुरुआत के तीन वर्षों के भीतर ही राजनीतिक चंदे का सबसे लोकप्रिय साधन बन गया है, इसमें दानदाताओं का नाम गुप्त रखा जाता है। हालाँकि कई राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि चुनावी बाॅण्ड के डिज़ाइन और संचालन के कारण राजनीतिक दलों को असीम तथा अज्ञात कॉर्पोरेट दान प्राप्त करने की संभावना होती है। यह प्रक्रिया नागरिकों और मतदाताओं के ’जानने का अधिकार’ (Right To Know) के संवैधानिक मूलाधिकारों के साथ ही भारत के लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करती है।
इसके कारण आगामी राज्य चुनावों के मद्देनज़र चुनावी बाॅण्ड को बनाए रखने के संदर्भ में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (Association of Democratic Reforms- ADR) ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बाॅण्ड योजना को बरकरार रखने या न रखने के प्रश्न पर निर्णय अभी सुरक्षित रखा है।
चुनावी बॉण्ड
- चुनावी बॉण्ड राजनीतिक दलों को दान देने हेतु एक वित्तीय साधन है।
- चुनावी बॉण्ड बिना किसी अधिकतम सीमा के 1,000 रुपए, 10,000 रुपए, 1 लाख रुपए, 10 लाख रुपए और 1 करोड़ रुपए के गुणकों में जारी किये जाते हैं।
- भारतीय स्टेट बैंक इन बॉण्डों को जारी करने और भुनाने (Encash) के लिये अधिकृत बैंक है, ये बॉण्ड जारी करने की तारीख से पंद्रह दिनों तक वैध रहते हैं।
- यह बॉण्ड एक पंजीकृत राजनीतिक पार्टी के निर्दिष्ट खाते में प्रतिदेय होता है।
- बॉण्ड किसी भी व्यक्ति (जो भारत का नागरिक है) द्वारा जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्तूबर के महीनों में प्रत्येक दस दिनों की अवधि हेतु खरीद के लिये उपलब्ध होते हैं, जैसा कि केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट किया गया है।
- एक व्यक्ति या तो अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से बॉण्ड खरीद सकता है।
- बॉण्ड पर दाता के नाम का उल्लेख नहीं किया जाता है।
चुनावी बाॅण्ड से संबद्ध चुनौतियाँ
- लोकतंत्र पर आघात: केंद्र सरकार ने वित्त अधिनियम 2017 में एक संशोधन द्वारा राजनीतिक दलों को चुनावी बाॅण्ड के माध्यम से प्राप्त चंदे का खुलासा न करने के संबंध में छूट दी है।
- इसका तात्पर्य है कि मतदाता यह नहीं जान पाएंगे कि किस व्यक्ति, कंपनी या संगठन ने किस पार्टी को और कितनी मात्रा में चंदा दिया है।
- हालाँकि एक प्रतिनिधि लोकतंत्र में नागरिकों को यह अधिकार है कि वह चुने जाने वाले अपने प्रतिनिधियों से संबंधित जानकारी प्राप्त कर सकें।
- "जानने का अधिकार" से समझौता: दीर्घकाल से ही सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष रूप से चुनाव के संदर्भ में माना है कि "जानने का अधिकार", भारतीय संविधान के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का एक अभिन्न अंग है।
- इस प्रकार चुनावी बाॅण्ड नागरिकों और मतदाताओं के "जानने का अधिकार" के साथ ही लोकतंत्र के मौलिक सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के खिलाफ: नागरिक, चुनावी बाॅण्ड से संबंधित कोई भी विवरण नहीं प्राप्त कर सकते हैं, इसके अतिरिक्त सरकार भारतीय स्टेट बैंक से डेटा की मांग कर दाता के विवरण तक पहुँच सकती है।
- तात्पर्य यह है कि सत्तासीन सरकार इस जानकारी का लाभ उठा सकती है और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनावों को बाधित कर सकती है।
- भारत के चुनाव आयोग द्वारा विरोध: चुनाव आयोग ने मई 2017 में जनप्रतिनिधि अधिनियम (Representation of the People Act- RPA) में संशोधनों पर आपत्ति जताई, क्योंकि यह राजनीतिक दलों को चुनावी बाॅण्ड के माध्यम से प्राप्त दान का खुलासा न करने की छूट देता है।
- चुनाव आयोग ने इसको "प्रतिगामी कदम" बताया।
- संस्थागत भ्रष्टाचार: चुनावी बाॅण्ड योजना राजनीतिक चंदे की सभी पूर्व-मौजूदा सीमाओं को हटा देती है जिसके परिणामस्वरूप निगमों को चुनावों में प्रभावी चंदा देने की अनुमति प्रदान की जाती है, इसके कारण क्रोनी पूंजीवाद का मार्ग प्रशस्त होता है।
- इसके अलावा चुनावी बाॅण्ड योजना के माध्यम से राजनीतिक दलों (इस प्रकार के चंदे को अक्सर शेल कंपनियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है) को भी विदेशी चंदा मिल सकता है। चुनावी बाॅण्ड योजना के साथ संस्थागत भ्रष्टाचार बढ़ने की संभावनाएँ कम होने के बजाय बढ़ जाती हैं।
आगे का रास्ता
- चुनावी वित्तीयन में पारदर्शिता: कई विकसित देशों में चुनावों का वित्तपोषण सार्वजनिक रूप से किया जाता है। यह समानता के सिद्धांत को सुनिश्चित करता है और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष के बीच संसाधन अंतराल को समाप्त करता है।
- दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग, दिनेश गोस्वामी समिति और कई अन्य लोगों ने भी चुनावों के राज्य वित्तपोषण की सिफारिश की है।
- इसके अलावा जब तक चुनावों का वित्तपोषण सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता है, तब तक राजनीतिक दलों के वित्तीय योगदान पर कैप या सीमाएँ आरोपित की जा सकती हैं।
- निर्णायक के रूप में न्यायपालिका का कार्य: किसी कार्यशील लोकतंत्र में स्वतंत्र न्यायपालिका को रेफरी के रूप में कार्य करते हुए अपने महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मूल सिद्धांतों को बनाए रखना आवश्यक है।
- चुनावी बाॅण्ड ने सरकार की चुनावी वैधता पर सवाल उठाया है और इस तरह पूरी चुनावी प्रक्रिया को संदिग्ध बना दिया है।
- इस संदर्भ में न्यायालय को एक निर्णायक के रूप में कार्य करना चाहिये और लोकतंत्र के मूलभूत नियमों को लागू करना चाहिये।
- नागरिक संस्कृति के प्रति संक्रमण: भारत में लगभग 75 वर्षों से लोकतंत्र अच्छा काम कर रहा है। अब सरकार को अधिक जवाबदेह बनाने के लिये मतदाताओं को स्वयं जागरूक होना चाहिये और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन करने वाले उम्मीदवारों एवं पार्टियों को अस्वीकार करना चाहिये।
प्रमुख बिंदु:
- पृष्ठभूमि: चुनावी बॉण्ड योजना गलत तरीके से की जाने वाली फंडिंग का नियंत्रण करती है, क्योंकि यह चेक और डिजिटल लेन-देन पर ज़ोर देती है, हालाँकि इस योजना के कई प्रमुख प्रावधान इसे अत्यधिक विवादास्पद बनाते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय में उठाया गया चुनावी बॉण्ड के दुरुपयोग का मुद्दा:
- अनामिकता: इस व्यवस्था के तहत न तो फंड देने वाले के नाम की घोषणा की जाती है और न ही फंड लेने वाले के नाम की।
- असममित रूप से अपारदर्शी: चूँकि चुनावी बॉण्ड केवल SBI के माध्यम से ही खरीदे जाते हैं, इसलिये सरकार इनके संबंध में जानकारी रखती है।
- जानकारी की यह विषमता सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी के पक्ष में होती है।
- काले धन का माध्यम: कॉर्पोरेट द्वारा की गई फंडिंग पर 7.5% की कैप का उन्मूलन, राजनीतिक योगदान करने वाले व्यक्ति की पहचान की आवश्यकता को निराधार करना और इस प्रावधान को समाप्त करना कि एक निगम को कम-से-कम तीन वर्ष पुराना होना चाहिये, इस योजना के उद्देश्य को अच्छी तरह से रेखांकित नहीं करता है।
- चुनाव आयोग ने दानदाताओं के नामों को उजागर न करने और घाटे में चल रही कंपनियाँ जो कि केवल शेल कंपनियाँ हैं, को बॉण्ड खरीदने की अनुमति देने पर चिंता जताई थी।
सरकार का पक्ष:
- चुनावी बॉण्ड हेतु योग्यता: केवल वे राजनीतिक दल ही चुनावी बॉण्ड प्राप्त करने के योग्य हैं जो जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29 (A) के तहत पंजीकृत हैं और जिन्होंने बीते आम चुनाव में कम-से-कम 1% मत प्राप्त किया है।
- काले धन को राजनीति से दूर रखना: पारंपरिक व्यवस्था के तहत जो भी चुनावी चंदा मिलता था वह मुख्यतः नकद दिया जाता था, जिसे काले धन की संभावना काफी बढ़ जाती थी। परंतु चूँकि वर्तमान प्रणाली के तहत चुनावी बॉण्ड केवल चेक या ई-भुगतान के ज़रिये ही खरीदा जा सकता है, इसलिये काले धन संबंधी चिंता खत्म हो जाती है।
- KYC मानकों का भी अनुसरण किया जाता है।
- भारत निर्वाचन आयोग का समर्थन: भारत निर्वाचन आयोग इन बॉण्डों के विरोध में नहीं था, उसने इसके अनामिकता संबंधी पहलू के बारे में चिंता जताई थी।
- इसने न्यायालय से कहा कि यह योजना नकद वित्तपोषण की पुरानी प्रणाली की तुलना में एक कदम आगे है।
आगे की राह:
- भ्रष्टाचार के दुष्चक्र को तोड़ने और लोकतांत्रिक राजनीति की गुणवत्ता के क्षरण को रोकने के लिये साहसिक सुधारों के साथ राजनीतिक वित्तपोषण के प्रभावी विनियमन की आवश्यकता है।
- संपूर्ण शासन तंत्र को अधिक जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिये मौजूदा कानूनों में खामियों को दूर करना ज़रूरी है।
- मतदाता, जागरूकता अभियानों की मांग करके पर्याप्त बदलाव लाने में मदद कर सकते हैं। यदि मतदाता उन उम्मीदवारों और पार्टियों को अस्वीकार करते हैं जो उन्हें रिश्वत देते हैं, तो लोकतंत्र एक कदम और आगे बढ़ेगा।
निष्कर्ष
यह ज़रूरी है कि अगर लोकतंत्र का विकास करना है, तो राजनीति को प्रभावित करने के एक हिस्से के रूप में धन की भूमिका सीमित होनी चाहिये। इस प्रकार यह अनिवार्य है कि चुनावी बाॅण्ड की योजना को संशोधित किया जाए।
प्रश्न: चुनावी बाॅण्ड नागरिकों और मतदाताओं को उनके “जानने का अधिकार” से दूर रखते हुए भारत के लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। टिप्पणी कीजिये।
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